Lekhika Ranchi

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प्रेमा--मुंशी प्रेमचंद




जब लोगों ने देखा इन शरारतों से अमृतराय को कुछ हानि पहुँची तो और ही चाल चले। उनके मुवक्किलों को बहकाना शुरु किया कि वह तो ईसाई हो गये हैं। साहबों के संग बैठकर खाते हैं। उनको किसी जानवर के मांस से विचार नहीं है। एक विधवा ब्रह्माणी से विवाह कर लिया है। उनका मुँह देखना, उनसे बातचीत करना भी शास्त्र के विरुद्ध है। मुवक्किलों को बहकाना शुरु कि याह कि वह तो ईसाई हो गये है। विधवा ब्रह्मणी से विवाह कर लिया है। उनका मुँह देखना, उनसे बातचीत करना भी शास्त्र के विरुद्ध है। मुवक्किलों में बहुधा करके देहातों के राजपूत ठाकुर और भुंइहार थे जो यहाता अविद्या की कालकोठरी में पड़े हुए थे या नये ज़माने क चमत्कार ने उन्हें चौंधिया दिया था। उन्होंने जब यह सब ऊटपटाँग बातें सुनी तब वे बहुत बिगड़े, बहुत झल्लाये और उसी दम कसम खाई की अब चाहे जो हो इस अधर्मी को कभी मुकदमा न देंगे। राम राम इसको वेदशास्त्र का तनिक विचार नहीं भया कि चट एक रॉँड़ को घर में बैठाल लिया। छी छी अपना लोक-परलोक दोनों बिगाड़ दिया। ऐसा ही था तो हिन्दू के घर में काहे को जन्म लिया था। किसी चोर-चंडाल के घर जनमे होते। बाप-दादे का नाम मिटा दिया। ऐसी ही बातें कोई दो सप्ताह तक उने मुवक्किलों में फैली। जिसका परिणाम यह हुआ कि बाबू अमृतराय का रंग फीका पड़ने लगा। जहॉँ मारे मुकदमों के सॉँस लेने का अवकाश न मिलता था। वहॉँ अब दिन-भर हाथ पर हाथ धरे बैठे रहने की नौबत आ गयी। यहॉँ तक कि तीसरा सप्ताह कोरा बीत गया और उनको एक भी अच्छा मुकदमा न मिला।

जज साहब एक बंगाली बाबू थे। अमृतराय के परिश्रम और तीव्रता, उत्साह और चपलता ने जज साहब की ऑंखों में उन्होंने बड़ी प्रशंसा दे रक्खी थी। वह अमृतराय की बढ़ती हुई वकालत को देख-देख समझ गये थे कि थोड़ी ही दिनों मे यह सब वकीलों का सभापति हा जाएगा। मगर जब तीन हफ्ते से उनकी सूरत न दिखायी दी तब उनको आश्चर्य हुआ। सरिश्तेदार से पूछा कि आजकल बाबू अमृतराय कहॉँ हैं। सरिश्तेदार साहब जाति के मुसलमान और बड़े सच्चे, साफ आदमी थे। उन्होंने सारा ब्योरा जो सुना था कह सुनाया। जज साहब सुनते ही समझ गये कि बेचारे अमृतराय सामाजिक कामों में अग्रण्य बनने का फल भोग रहे हैं। दूसरे दिन उन्होंने खुद अमृतराय को इजलास पर बुलवाया और देहाती ज़मींदारी के सामने उनसे बहुत देर तक इधर-उधर की बातें की। अमृतराय भी हँस-हँस उनकी बातों का जवाब दिया किये। इस बीच में कई वकीलों और बैरिस्टर जज साहब को दिखाने कि लिए कागज पत्र - लाये मगर साहब ने किसी के ओर ध्यान नहीं दिया। जब वह चले तो साहब ने कुसी उठकर हाथ मिलाया और जरा जोर से बोलो – बहुत अच्छा, बाबू साहब जैसा आप बोलता है, इस मुकदमे मे वैसा ही होगा।
आज जब कचहरी बरखास्त हुई तो उन जमीदारों में जिनके मुकदमे आज पेश थे, यों गलेचौर होने लगी।
ठाकुर साहब- ( पगडी बॉंधे, मूछें खडी. किये, मोटासा लद्व हाथ में लिये) आज जज साहब अमृतराय से खुब- खुब बतियात रहे।
मिश्र जी- (सिर घुटाये,टीका लगाये, मुह में तम्बाकु दाबाये और कन्घे पर अगोछा रक्खे) खूब ब बतियावत रहा मानो कोउ अपने मित्र से बतियावै।
ठाकुर- अमृतराय कस हँस- हँस मुडी हिलावत रहा।
मिश्र जी- बडे. आदमियन का सबजगह आदर होत है।
ठाकुर- जब लो दोनो बतियात रहे तब तलुक कउ वकील आये बाकी साहेब कोउ की ओर तनिक नाहीं ताकिन।
मिश्र जी- हम कहे देइत है तुमार मुकदमा उनहीं के राय से चले। सुनत रहयो कि नाहीं जब अमृतराय चले लागे तो जज साहब कहेन कि इस मुकदमे में वैसा ही होगा
ठाकुर- सुना काहे नहीं, बाकी फिर काव करी।
मिश्र जी- इतना तो हम कहित है कि अस वकिल पिरथी भर में नाहीं ना।
ठाकुर- कसबहस करत हैं मानो जिहवा पर सरस्वती बैठी होय। उनकर बराबरी करैया आज कोई नाहीं है।
मिश्र जी- मुदा इसाई होइ गया। रॉंड.से ब्याह किहेसि।
ठाकुर- एतनै तो बीच परा है। अगर उनका वकील किहे होईत तो बाजी बद के जीत जाईत।
इसी तरह दोनो में बातें हुई और दिया में बती पडतें- पडतें दोनो अमृतराय के पास गये और उनसे मुकदमें की कुल रुयदाद बयान कि। बाबू साहब ने पहले ही समझ लिया था कि इस मुकदमें में कुछ जान नहीं है। तिस पर उन्होंने मूकदमा ले लिया और दुसरे दिन एसी योग्यता से बहस की कि दूसरी ओर के वकिल- मुखतियार खडे.मुह ताकते रह गये। आख्रिर जीत का सेहरा भी उन्हीं के सिर रहा। जज साहब उनकी बकतृया पर एसे प्रसन्न हुए कि उन्होंने हँसकर घन्यबाद दिया और हाथ मिलया। बस अब क्या था । एक तो अमृतराय यों ही प्रसिद्व थे, उस पर जज साहब का यह वताव और भी सोने पर सुहागा हो गया । वह बँगले पर पहुँच कर चैन से बैठने भी न पाये थे, कि मुवक्किलो के दल के दल आने लगे और दस बजे रात तक यही ताता लगा रहा। दूसरे दिन से उनकी वकालत पहले से भी अधिक चमक उठी ।
द्रोहियों जब देखा कि हमारी चाल भी उलटी पडी. तो और भी दॉत पीसने लगे। अब मुंशी बदरीप्रसाद तो थे हि नहीं कि उन्हें सीधी चालें बताते। और न ठाकुर थे कि कुछ बाहुबल का चमत्कार दिखाते । बाबू कमलाप्रसाद अपने पिता के सामने ही से इन बातो से अलग हो गये थे। इसलिये दोहियों को अपना और कुछ बस न देख कर पंडित भगुदत का द्वार खटखटाया उनसें कर जोड कर कहा कि महाराज! कृपा-सिन्धु! अब भारत वर्ष में महा उत्पात और घोर पाप हो रहा है। अब आप ही चाहो तो उसका उद्वार हो सकता है । सिवाय आप के इस नौका को पार लगाने वाला इस संसार में कोई नहीं है। महाराज ! अगर इस समय पूरा बल न लगाया तो फिर इस नगर के वासी कहीं मुह दिखाने के योग्य नहीं रहेंगे। कृपा के परनाले और धर्म के पोखरा ने जब अपने जजमानों को ऐसी दीनता से स्तुति करते देखा तो दॉत निकालकर बोले आप लोग जौन है तैन घबरायें मत। आप देखा करें कि भृगुदत क्या करते है।
सेठ धूनीमल- महाराज! कुछ ऐसा यतन कीजिये कि इस दुष्ट का सत्यानाश् हो जाय ! कोई नाम लेवा न बचे।
कई आदमी- हॉ महाराज! इस घडी तो यही चाहिये।
भृगुदत- यही चाहिये तो यही लेना। सर्वथा नाश न कर दू तो ब्राहमण नहीं। आज के सातवें दिन उसका नाश हो जायेगा।
सेठ जी- द्वव्य जो लगे बेखटके कोठी से मॅगा लेना ।
भृगुदत- इसके कहने की कोइ आवश्यकता नहीं। केवल पॉच सौ ब्राहमण का प्रतिदिन भोजन होगा।
बाबू दीनानाथ-तो कहिये तो कोई हलवाई लगा दिया जाए। राघो हलवाई पेड़े और लडू बहुत अच्छे बनाता है।
भृगुदत- जो पूजा मैं कराउगा उसमें पेड़ा खाना वर्जित है। अधिक इमरती का सेवन हो उतना ही कार्य सिद्व हो जाता है।
इस पर पंड़ित जी के एक चेले ने कहा- गरू जी! आज तो आप ने न्याय का पाठ देते समय कहा था कि पेड़े के साथ दही मिला दिया जाए तो उसमें कोइ दोष नहीं रहता।
भृगुदत- (हॅसकर) हॉ- हॉ अब स्मरण हुआ। मनु जी ने इस शलोक में इस बात का प्रमाण दिया है।
दीनानाथ-(मुसकराकर) महाराज! चेला तो बड़ा तिब्र है।
सेठ जी- यह अपने गरूजी से बाजी ले जायेगा।
भृगुदत- अब कि इसने एक यज्ञ में दो सेर पूरियॉ खायी। उस दिन से मैने इसका नाम अंतिम परीक्षा में लिख दिया।
चेला- मैं अपने मन से थोड़ा ही उठा । अगर जजमान हाथ जोड़कर उठा न देते तो अभी सेर भर और खा के उठता।
दीनानाथ-क्यो न हो पटे ! जैसे गुरू वैसे चेला!
सेठ जी- महाराज, अब हमको आज्ञा दीजिए। आज हलवाई आ जाएगा। मुनीम जी भी उसके साथ लगे रहेगें। जो सौ दो सौ का काम लगे मुनीम जी से फरमा देना। मगर बात तब है कि आप भी इस बिषय में जान लड़ा दे।
पंड़ित जी ने सिर का कद्दू हिलाकर कहा- इसमें आप कोई खटका न समझिये। एक सप्ताह में अगर दुष्ट का न नाश हो जाए तो भृगुदत नहीं। अब आपको पूजन की बिधि भी बता ही दू। सुनिए तांत्रिक बिद्या में एक मंत्र एसा भी है जिसके जगाने से बैरी की आयु क्षीण होती है। अगर दस आदमी प्रतिदिवस उसका पाठ करे तो आयु में दोपहर की हानि होगी। अगर सौ आदमी पाठ करे तो दस दिन की हानि होगी।
यदि पाच सौ पाठ नित्य हों तो हर दिन पाच वष आयु घटती हैं।
सेठ जी- महाराज, आप ने इस घड़ी एसी बात कही कि हमारा चोला मस्त हो गया, मस्त हो गया ,
दीनानाथ- कृपासिन्घु, आप घन्य हो ! आप घन्य हो !
बहुत से आदमी- एक बार बोलो- पंड़ित भृगुदत जय !
बहुत से आदमी- एक बार बोलो- दुष्ठों की छै ! छै ! !
इस तरह कोलाहल मचाते हुए लोग अपने- अपने घरो को लौटे। उसी दिन राघो हलवाई पंड़ित जी के मकान पर जा डटा। पूजा-पाठ होने लगे । पाच सौ भुक्खड़ एकत्र हो गये और दोनों जून माल उडानें लगे। धीरे- धीरे पाच सौ से एक हजार नम्बर पहुचा पूजा-पाठ कौन करता है। सबेरे से भोजन का प्रबन्ध करते – करते दोपहर हो जाता था। और दोपहर से भंग- बूटी छानते रात हो जाती थी। हॉ पंडित भृगुदत दास का नाम पुरे शहर में उजागर हो रहा था। चारो ओर उनकी बड़ाई गाई जा रही थ। सात दिन यही अधाधुंध मचा रहा। यह सब कुछ हुआ । मगर बाबू अमृतराय का बाल बाँका न हो सका। कही चमार के सरापे डागर मिलते है। एसे ऑंख् के अंधे और गँठ के पुरे न फँसे तो भृगुदत जैसे गुगो को चखौतिया कौन करायें। सेठ जी के आदमी तिल- तिल पर अमृतराय के मकान पर दौड़ते थे कि देखें कुछ जंत्र –मत्र का फल हुआ कि नहीं। मगर सात दिन के बीतने पर कुछ फल हुआ तो यही कि अमृतराय की वकालत सदा से बढकर चमकी हुई थी।

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